अनुभव अनुभव कैसे बनता

अनुभव अनुभव कैसे बनता है और उससे भी ज्यादा यह की अनुभव को लिखते किन शब्दों में है.. चेतना का अनुभव और उसकी व्याख्या दोनों का। जब तक विज्ञान स्पष्टता से अपनी सीमाये नहीं स्वीकारेगा, अपना ही विकास रोकेगा तथा आम जन मानस का विश्वास नहीं जीत पायेगा ।
जब मैंने लिखना शुरू किया तो रोज़ अपने आसपास के वातावरण और सामाजिक गतिविधियां ,ुझे समाज में व्याप्त कुरीतियां पर विचार करने अतः उसे दूर करने के लिए अंदर से प्रेरित करने लगीं।कुछ इस तरह के सवाल जहन को झकझोरने लगे जिनका जबाब भी हमें खुद ही निकलना था।
जैसे-जैसे मैं यह अवलोकन करता वैसे-वैसे मेरे लिए और ज्यादा अवलोकन करने की ज़रूरत भी बढ़ती जाती। बच्चों और समाज को इस प्रकार ध्यान से देखने से मुझे कई सूत्र, सुझाव एवं संकेत मिले – बच्चों और समाज को क्या सीखना है, उनके अंदर सहभागिता को कैसे सिखाना है और उसे सिखाने का सबसे अच्छा तरीका व माहौल क्या है। उन्हें कैसे प्रोत्साहित किया जा सकता है।
पहले दार्शनिकता आई और फिर विज्ञान। आइन्स्टाइन और नील बोहर के ज़माने तक दोनों ने बराबर तरक्की की। कार्ल सगन और स्टीफन हॉकिन्स का मनना था के बाद के काल में दार्शनिकता विज्ञानं के पीछे छुट गई। मानवता विज्ञानं में तो बहोत आगे बढ़ी पर दार्शनिकता मे हम बहोत पीछे रह गए । यही कारन है के हम विज्ञानं का दुरूपयोग पाते है और अब सिमित हो रहे है।
हो सकता है क्वांटम सायंस के साथ हम दार्शनिकता के छुपे पर्दों के पार देख पाए। तब तक हम पदार्थ के भौतिकी पर ही सिमित है। फिजिक्स जब तक दार्शनिकता के नए आयामों पर नहीं पहुचता हम क्वांटम सायंस के नियम नहीं परिभाषित कर पाएंगे। आपकी तरह बहोत ही कम इन सवालो के जवाब की तलाश में है। वाकई आप काबिले तारीफ है।
अनुभव अनुभव कैसे बनता है औरों के अनुभव सुनकर, अपने अनुभव औरों के सामने रखकर, और अनुभवों की समानता देखकर कुछ ठोस निष्कर्षों पर भी पहुंचना संभव होता है।
यह भी समझ बनती है कि सिखाने की प्रक्रिया एक निरन्तर प्रयोग है, जो कभी तो सफल हो जाता है और कभी नहीं। और प्रयोग का सफल हो जाना भी उतना ही सही है जितना उसका विफल रहना। क्योंकि दोनों परिस्थितियों में बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
दर्शन अपने आप में एक स्वतंत्र विधा है। लेकिन धर्म के अंतर्गत इसका विकास और इस तरह धर्म के साथ इसका जुड़ाव हो जाने के कारण धर्म और दर्शन को अलग-अलग करके देख पाना मुश्किल हो जाता है। इसीलिए पहले दर्शन एवं दार्शनिकता आई बाद में गणित एवं विज्ञान।
वर्तमान समय की विसंगतियों का एक बहुत बड़ा कारण है कि हमारे विकास की अवधारणा में हम दर्शन एवं गणित, विज्ञान का सही तालमेल नहीं बैठा पाते।
यदि हम अपने अनुभव नियमित रूप से साथ बैठकर न बांट सके तो हम ऐसे अनुभवों को लिख और पढ़कर तो बांट ही सकते हैं। अनुभवों को बांटने के लिए लिखना, व्यवस्थित करना व एक दूसरे को नियमित रूप से भेज पाना; आमने-सामने हुई बातचीत जितना अच्छा तो नहीं है और मुश्किल भी है। पर इसे करना बहुत जरूरी है।
ज्ञान, धन का ही सूक्ष्म रूप है जैसे पानी बर्फ का।बस नीचे के स्तर को लांघते जाइए तब पता चल जाएगा जहां कुछ नहीं है वहां ही सब कुछ है।
लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल।
लाली ढूढन मैं भी हो गई लाल।।
-कबीर
अमित सिंह शिवभक्त नंदी पढ़िए बेहतरीन सामाजिक लेखों का संग्रह ( क़लम एक कुदाल )