मज़बूरी में चिल्लाता है

वह गरीब भूखा है,
मज़बूरी में चिल्लाता है ..!
कब तक उसको
भाषण से बहलाओगे..?
रोटी की माँग उठाता है..!
क्यों भाषण उसे खिलाते हो कब तक..?
वह मज़दूरी को जूझ रहा..!
तुम काम नहीं दे पाते हो..!
उसके किये श्रम का आधा भी
दाम नहीं दिला पाते हो..!
वह तो कर्म का प्यासा है..!
तुम कितना बातों का नशा पिलाओगे कब तक..?
देखे तेरे घड़ियाली आँसू और
कपट से युक्त जाल
यूँही बिछाओगे कब तक..?
सुबह उठते हैं ही
जहन में छा जाते सैकड़ों सवाल,
आखिर इनसे टरकाओगे कब तक..?
अपने हक़ की आवाज़
मोहल्ले में लगाता हे कोई है..!
अरे तुम कितनों को लटकाओगे कब तक..?
मांग रहा हर कोई आज़ाद हवा..!
तुम कितनी गोली चलवाओगे..?
सच देख रहा है हर कोई अपनी आँखों से..!
तुम आखिर क्या-क्या झुठलाओगे..?
पूंजीपतियों के कोल्हू में बांधे,
कब तक इनसे चक्की पिसवाओगे कब तक ..?
इनको भूख से बिलखते
और मरते गरीब लोगों को,
तुम भला क्या दिलाशा दोगे..?
यूँ अपनी नीम-हकीमी से,
जीवन जीने की आशा क्या दोगे..?
मंदिर-मस्ज़िद के झगड़ों में,
तुम आखिर उलझाओगे कब तक..?
यहाँ तो बसी तेरी हताशा की दुनिया,
अब हर बस्ती में बनी
फ़ौज तेरे खूँ-खोरों की..!
व्यापारी मगन है अपने मस्त मुनाफ़े में,
तू ख़बर क्या लेगा गरीब किसानों की..!
वह तिल-तिल कर
अंदर ही अंदर सुलग रहा..!
अब ये आग लगाओगे कब तक..?
अब दुनिया के सबसे ये मेहनतकश..!
लोग तुमसे मिल-जुल कर सलटेंगे..!
जब भी साम्राज्य जर्जर हुआ खेती का ..!
देखना आखिर में ये ही पलटेंगे..!
सब उठेंगे दावानल बनकर..!
और कितने झूठ के कोहरे फैलाओगे..?
वह गरीब भूखा है,
मज़बूरी में चिल्लाता है ..!
उसको बहलाओगे कब तक ..?
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